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योग क्या है ?

हमारे प्राचीन भारतीय इतिहास् में योग दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। प्राचीन वेदों व् पुराणों में इसका वृहद् उल्लेख मिलता है,  अनेको अनेक ऋषि मुनि एवं मनीषियों ने भी इसका वृहद् ज्ञान दिया है। परन्तु महर्षि पतंजलि ने इसको क्रमबद्ध रूप से लिपिबद्ध किया पर वास्तव में योग के प्रथम गुरु भगवन सही ही है।
योग शब्द संस्कृत के युज धातु से मिल कर बना है जिसका  का अर्थ  युक्त करना , जोड़ना या मिलाना है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार "योग: चित्तावृत्तिनिरोध:"- अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध या नियंत्रण ही योग है।
इसी प्रकार श्रीमद्भागवत गीता में भगवन श्री कृष्ण ने कहा "योग: कर्मसु कौशलम" अर्थात कर्मो में कुशलता ही योग है।
लेकिन वर्त्तमान में हम इस योग दर्शन को भूल गए और केवल भौतिक्ता पर ही केन्द्रित हो कर रह गए। और अगर इसका ज्ञान भी है तो यह केवल योग कैम्पों , टेलीविजन, पत्रिकाओं में तक ही सिमित हो कर रह गया है। इसका प्रमुख कारण इसका वृहद् स्वरूप का होना है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है योग को आप अपनी आवश्यकता या शरीरिक जरुरत के अनुसार कर सकते है बस आवश्यकता है तो थोड़े से समय और सही मार्ग दर्शन की।
आप जिम जाकर, कसरत कर, या जागिंग कर के कम समय में उतना फायदा नहीं उठा सकते जितना की योग कर के उठा सकते है न केवल शारीरिक  दृष्टिकोण से बल्कि स्वास्थ प्राप्ति के लिए भी उपयोगी है।
योग को धर्म आस्था या अन्धविश्वाश के दायरे में नहीं बांध कर रखा जासकता है।
योग के कई स्वरूप है जैसे ज्ञानयोग, भक्तियोग, धर्मयोग और कर्मयोग व् राजयोग यंहा पर हम राजयोग की बात करेंगे जिसका की जिक्र महर्षि पतंजलि ने किया है 
इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम आष्टांग योग के नाम से जानते हैं। आष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है।
महर्षि पतंजलि ने योग के  आठ सोपान बताये है जो निम्नलिखित है,
1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि
यम 
इसके पांच अंग होते है। 
1. अहिंसा - किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करनी चाहिए अर्थात सभी जीवों पर दया भावना रखनी चाहिये। 
2. सत्य - कभी भी झूठ का सहारा या झूठ नहीं बोलना चाहिये।
3. अस्तेय- चोरी या इस प्रकार कार्यो को नहीं करना चाहिए। 
4. ब्रम्हचर्य- इन्द्रियों पर संयम रखना।  
5. अपरिग्रह- आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना चाहिये। 

नियम 
इसके पांच प्रकार होते है।
1. शौच- शारीरिक, मानसिक शुद्धता 
2. संतोष- लाभ या हानी के प्रति निरिविकर भाव रखना।
3. तप- निष्ठा पूर्वक श्रम करते रहना।
4. स्वध्याय- अर्थात अपने आप को निरंतर अध्यन, मनन और अपने आप को जानने में लगाना चाहिये।
5. ईश्वर प्राणी निधान- सम्पूर्ण सृष्टी, समाज और विश्व में आस्था एवं  श्रद्धा रखना।

नोट: यम का उद्देश्य आत्मनियंत्रण है जबकि नियम का उद्देश्य आत्मोन्नति है पहले का संबंध स्वयं से है दुसरे का  संबंध व्यवहार जगत से है। 


आसन 
 
आसन की सिद्धि से नाड़ियों की शुद्धि, आरोग्य की वृद्धि एवं स्फूर्ति प्राप्त होती है।  पतंजलि ने अपने रचित  योगसूत्र में लिखा है "स्थिरं सुखम आसनम" चित्त को स्थिर रखने वाले तथा सुख देने वाले बैठने के प्रकार को आसन कहते हैं।योग की आठ मंजिलो में  तीसरी एवं महत्वपूर्ण  मंजिल है अर्थात तीसरी मंजिल को लिए पहली व् दूसरी मंजिल को प्राप्त करना अनिवार्य है नहीं तो आसन की सिद्धि पूर्ण रूप से नहीं हो  सकेगी।

प्राणायाम  

योग के आठ सोपानो  में से चौथा सोपान  है प्राणायाम। प्राण+आयाम से प्राणायाम शब्द बनता है। प्राण का अर्थ जीवात्मा माना जाता है, लेकिन इसका संबंध शरीरांतर्गत वायु से है जिसका मुख्य स्थान हृदय में है। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। अर्थात  वायु ही प्राण है। श्वास -प्रश्वास की गति का नियमन कर  प्राणशक्ति को उत्प्रेरणा देना, बढ़ाना  विस्तार  विशेष भाग में संचालित करना अथवा सम्पूर्ण शरीर में प्राण को नियंत्रित करना ही प्राणायाम कहलाता है।
हम जब साँस लेते हैं तो भीतर जा रही वायु शरीर के भीतर पाँच जगह में स्थिर हो जाती हैं। ये पंचक निम्न हैं- (1)व्यान, (2)समान, (3)अपान, (4)उदान और (5)प्राण।

उक्त सभी को मिलाकर ही चेतना में जागरण आता है, स्मृतियाँ सुरक्षित रहती है। मन संचालित होता रहता है तथा शरीर का रक्षण व क्षरण होता रहता है। उक्त में से एक भी जगह दिक्कत है तो सभी जगह उससे प्रभावित होती है और इसी से शरीर, मन तथा चेतना भी रोग और शोक से ‍घिर जाते हैं। चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी प्राणायाम से शुद्ध और पुष्ट रहते हैं।

(1)व्यान   : व्यान का अर्थ जो चरबी तथा माँस का कार्य करती है।
(2)समान : इस वायु का कार्य हड्डी में होता है।
(3)अपान : अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(4)उदान  : उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे नाड़ी तंत्र  में होती है।
(5)प्राण    : प्राण वायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु रक्त में होती है।

प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएँ करते हैं- 1.पूरक (लेना) 2.कुम्भक(रोकना) 3.रेचक(छोड़ना)। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। वायु को अन्दर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्बक कहते हैं।

(1)पूरक:- अर्थात नियंत्रित गति से श्वास अंदर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे या तेजी से दोनों ही तरीके से जब भीतर खिंचते हैं तो उसमें लय और अनुपात का होना आवश्यक है।
(2)कुम्भक:- अंदर की हुई श्वास को क्षमतानुसार रोककर रखने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं। श्वास को अंदर रोकने की क्रिया को आंतरिक कुंभक और श्वास को बाहर छोड़कर पुन: नहीं लेकर कुछ देर रुकने की क्रिया को बाहरी कुंभक कहते हैं। इसमें भी लय और अनुपात का होना आवश्यक है।
(3)रेचक:- अंदर ली हुई श्वास को नियंत्रित गति से छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे या तेजी से दोनों ही तरीके से जब छोड़ते हैं तो उसमें लय और अनुपात का होना आवश्यक है।

प्राणायाम के प्रमुख प्रकार : 1.नाड़ीशोधन/ अनुलोम विलोम , 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक,  8.शीतकारी, 9.शीतली, 10.मूर्छा, 11 .सूर्यभेदन, 12 .चंद्रभेदन, 13 .प्रणव, 15 .उद्गीथ, 17.प्लावनी आदि है। 

प्रत्याहार
 जब इन्द्रियां अपने बाह्य बिषयों से मुड़कर अन्तर्मुखी हो जाती है , तो उस अवस्था को प्रत्याहार कहते है, मुख्यत: प्रत्याहार की सिद्धि में इन्द्रियों पर अधिकार , मन की निर्मलता , तप की वृद्धि , दीनता का नाश , शरिरिक आरोग्यता की प्राप्ति तथा समाधि में प्रवेश करने की ताकत प्राप्त होती है। 
जिस अवस्था में हमारी इन्द्रियां अपने बाह्य बिषयों से मुक्त होकर अंतर्मुखी हो जाती है, उस अवस्था को प्रत्याहार कहते है।  
 
धारणा
चित्त का देश विशेष में बँध जाना धारणा है। इस अवस्था में मन पूरी तरह स्थिर तथा शांत रहता है। जब व्यक्ति  प्रत्याहर में पारंगत हो जाता है तो धारणा सधने लगती है। कल्पना और विचारों का यथार्थ रूप ले लेना ही धारणा है।
जिसे धारणा सिद्ध हो जाती है, कहते हैं कि ऐसा योगी अपनी सोच या संकल्प मात्र से सब कुछ बदल सकता है। ऐसे ही योगी के आशीर्वाद या शाप फलित होते हैं। तब कल्पना करें की आप सेहतमंद और सफल व्यक्ति बनना चाहते हैं। धारणा से मन पूर्णत: एकाग्र रहकर शक्तिशाली बन जाता है।
 ध्यान
ध्यान का संबंध मौन से है। चुप रहकर, कुछ भी नहीं सोचते हुए, स्वयं के आसपास की गतिविधियों तथा स्वयं के शरीर की गति का अवलोकन करते रहने से भी जागरूकता का विकास होता है। आप चाहे तो आँखें बंद करके बैठ जाएँ और श्वास-प्रश्वास को ध्यानपूर्वक महसूस करते रहें। भीतर और बाहर से मौन होना ध्यान की शुरुआत के लिए जरूरी है। ध्यान की सहायता से मन के राजस और तमस "मल" का नाश हो जाता है तथा सात्विक गुणों का विकाश होता है।
 
समाधि
समाधि समयातीत है जिसे मोक्ष कहा जाता है। इस मोक्ष को ही जैन धर्म में कैवल्य ज्ञान और बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा गया है। योग में इसे समाधि कहा गया है। इसके कई स्तर होते हैं। मोक्ष एक ऐसी दशा है जिसे मनोदशा नहीं कह सकते। समाधि है मन, विचार और शरीर के पार जीने की कला।

योग का विस्तार बहुत बड़ा है इसको जानने के लिए सामान्य मनुष्य को कई जन्म लग सकता है , किन्तु हम आरोग्य प्राप्त करने के लिए योग के कुछ अंगो को अपना कर अपने आप को स्वस्थ रख सकते है। 
जो निम्न प्रकार के है 
1. आसन 
2. प्राणायाम 
3. ध्यान (Meditation)
डा. नवनीत शुक्ला 
(प्राकृतिक एवं योग चिकित्सक)